Last Updated on March 27, 2025 by Yogi Deep
रानी भवानी देवी, जिन्हें काशी की अन्नपूर्णा भी कहा जाता है। वाराणसी के समृद्ध इतिहास में इनका नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। इन्होने काशी में कई मंदिरों, घाटों, कुण्डों व् तालाबों का जीर्णोद्धार कराया। इनके क्षत्र छाया में कई गरीबों को प्रतिदिन भोजन मिलता था। अतः इन्हें काशी में अन्नपूर्णा के रूप में मन जाता था। सन् 1773 में काशी आगमन के बाद उन्होंने मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों के पुनर्निर्माण, नयें कुण्डों एवं तालाबों की खुदाई, पञ्चक्रोशि मार्ग निर्माण एवं ब्राह्मणों के लिए आवासीय भवनों की स्थापना जैसे अनेक कार्य किए। इन्होनें काशी के पुनरुत्थान के लिए अपना धन-संपत्ति एवं जीवन सभी अर्पण कर दिया। यह लेख रानी भवानी के जीवन, उनके प्रेरणादायक कार्यों एवं काशी के पुनरोत्थान को प्रदर्शित करता है।
नाम | रानी भवानी, Rani Bhabani, অর্ধবঙ্গেশ্বরী |
अन्य नाम | काशी की अन्नपूर्णा, अर्धबंगेश्वरी |
जन्म | 1716 चटियांग्राम, बोगरा, बंगाल (बांग्लादेश) |
पद | बंगाल की रानी |
काशी में योगदान | धार्मिक धरोहरों का पुनर्निर्माण |
स्वर्गवास | 5 सितंबर, 1802 |
रानी भवानी देवी
रानी भवानी का जन्म 1716 ई० के आसपास बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ। बचपन में अर्धबंगेश्वरी (অর্ধবঙ্গেশ্বরী) नाम से जानी जाने वाली रानी भवानी को नटोरेर रानी या नटोर की रानी के नाम से भी प्रसिद्धि थीं। विवाह के बाद, पति रमाकांत मोइत्रा की असमय मृत्यु के पश्चात उन्होंने नाटोरे एस्टेट की जमींदारी संभाली। इनके पिता आत्माराम चौधरी भी एक जमींदार थे, जिनसे उनको नेतृत्व और धर्मनिष्ठा की प्रेरणा मिली।1

जय भवानी बाड़ी
सन् 1770 ई० में रानी भवानी ने काशी के बंगाली टोला क्षेत्र में देवी मंदिरों की स्थापना एवं अपने परिवार के निवास के लिए एक भव्य भवन का निर्माण कराया, जिसे जय भवानी बाड़ी कहा जाता है। इस भवन में दुर्गा, विशालाक्षी और जय भवानी के मंदिर स्थित हैं। इसके अतिरिक्त, राधा गोपाल और राधा गोविन्द के मंदिर भी यहां विद्यमान हैं। भवन के द्वार पर नौबतखाना सुशोभित है, जबकि काली और तारा की मूर्तियाँ पूर्ण एकांत में स्थापित हैं, जो इसे एक अद्वितीय धार्मिक स्थल बनाती हैं।2

काशी में पञ्चक्रोशि मार्ग, कुण्ड एवं धरोहरों की पुनर्स्थापना
पंचकोशी मार्ग पर सभी कार्य रानी भवानी ने सन् 1753 ई० में पूर्ण कराए। उन्होंने प्रसिद्ध दुर्गाकुण्ड दुर्गा मंदिर का निर्माण कराया और कपाल मोचन कुण्ड का जीर्णोद्धार भी किया। इसके अतिरिक्त ओंकारेश्वर कुण्ड एवं मंदिर का निर्माण भी उनके द्वारा कराया गया। इन सभी धार्मिक कार्यों के पीछे काशी की धार्मिक धरोहर को पुनः स्थापित करने का उद्देश्य था।
यह किवंदंती है कि रानी ने ब्राह्मणों के लिए भवन बनवाकर उसमें शिव की मूर्ति स्थापित करवाई। हालांकि, तत्कालीन ब्राह्मणों नें अपनी संकुचित विचारधारा के कारण इस दान को अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप, कालांतर में इन मकानों में दक्षिणी और मराठा ब्राह्मणों ने दखल कर लिया। मीर घाट पर स्थित मकानों की लंबी कतार एवं उनसे संबंधित भवन व गली आज भी रानी भवानी के नाम से प्रसिद्ध हैं।3
काशी में स्थापित गोविन्द-गोपल एवं माँ तारा मन्दिर
काशी में भगवान कृष्ण के दो मंदिर (गोविन्द-गोपल) स्थित हैं, जिनमें रानी भवानी ने गोपाल की मूर्ति की स्थापना स्वयं की, जबकि गोविन्द की मूर्ति उनकी बेटी द्वारा स्थापित कराई गई। माँ तारा की मूर्ति की स्थापना चन्द्रकान्त ठाकुर और नीलमणि ठाकुर ने की थी इन्होने ही वाराणसी में रानी भवानी के सभी धार्मिक निर्माणों में अमूल्य सहयोग भी दिया था। रानी ने मंदिर में बागों का भी निर्माण कराया जिससे देवी के श्रृंगार और भोग के लिए पर्याप्त फूल और फल हमेशा उपलब्ध हो सकें।
रानी भवानी का अंतिम धार्मिक कार्य
कंदवा के प्राचीनतम कर्मदेश्वर महादेव मंदिर, जो किसी कारणवश मुगलों से बच गया था, उस शिव मंदिर एवं मंदिर स्थित कुण्ड का जीर्णोद्धार रानी भवानी ने सन् 1802 ई० में कराया। संभवतः यही उनका अंतिम धार्मिक कार्य था। इस पुण्य और धार्मिक कार्य के बाद, सन् 1802 ई० में, बंगाल के मुर्शिदाबाद के पास बादानगर में, 79 वर्ष की आयु में उन्होंने इस नश्वर शरीर का त्याग किया।
रानी भवानी ट्रस्ट
रानी भवानी ने अपने समस्त धार्मिक कार्यों के रखरखाव के लिए 1.5 लाख रुपये का ट्रस्ट बनाकर छोड़ दिया। इस ट्रस्ट को अर्पणामा कहा गया। अपर्णामा ट्रस्ट का मैनेजर उन्होंने सन् 1773 ई० में अपने गुरु पं० काशी शंकर ठाकुर को बनाया। उनके निधन के पश्चात उनकी पत्नी भागीरथी देवी ने इस ट्रस्ट का प्रबंधन संभाला। बाद में यह ट्रस्ट स्थानीय एजेंसी के अधिकार में चला गया।