Last Updated on May 22, 2025 by Yogi Deep
वाराणसी (काशी) के घाटों में से एक राणा महल घाट का इतिहास 17वीं सदी से जुड़ा है। यह घाट दरभंगा घाट और चौसट्टी (पंचगंगा) घाट के बीच स्थित है। चौसठी घाट के उत्तरी भाग में संलग्न यह घाट महाराणा जगत सिंह द्वितीय (उदयपुर, राजस्थान) द्वारा लगभग 17वीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में बनवाया गया था। स्थानीय मान्यता है कि (1675 ई. में) महाराणा जगत सिंह अपनी काशी तीर्थयात्रा के दौरान इस महल में ठहरे थे। राणा महल घाट नाम इसी राजपूताना वंश और महल के कारण पड़ा, जो उस समय काशी में राजपूताना स्थापत्य कला का प्रतीक था।
घाट का नाम | राणामहल घाट |
क्षेत्र | वाराणसी |
निर्माण | 17वीं सदी |
निर्माता | महाराणा जगत सिंह |
विशेषता | राणा महल |
दर्शनीय स्थल | गणेश जी एवं शिव जी के मंदिर |
राणामहल घाट का इतिहास
1675 ई. में महाराणा जगत सिंह ने काशी यात्रा के दौरान इसी घाट पर स्थित महल में निवास किया था। इस महल को विशेष रूप से उदयपुर से आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिए बनवाया गया था।1 राजस्थान और काशी के बीच सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने वाले इस घाट का निर्माण मेवाड़ की शान को प्रतिबिंबित करता है। महाराणा जगत सिंह द्वितीय, जो सिसोदिया वंश के शासक थे, ने अपने शासनकाल में कला और वास्तुकला को विशेष प्रोत्साहन दिया। हालाँकि, मराठा आक्रमणों और राजनीतिक उथल-पुथल के कारण मेवाड़ का पतन हुआ, लेकिन उनकी सांस्कृतिक विरासत आज भी जीवित है।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय
महाराणा जगत सिंह द्वितीय (राज्यकाल: 1731–1751 ई.) मेवाड़ (उदयपुर) के सिसोदिया वंश के एक प्रमुख शासक थे, जो अपनी प्रशासनिक उपलब्धियों से अधिक कला, वास्तुकला और विलासिता के प्रति अपने झुकाव के लिए स्मरण किए जाते हैं। वे महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के पुत्र थे।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय अपने युग के महान कला संरक्षक माने जाते हैं। उन्होंने न केवल अपने महलों का विस्तार किया, बल्कि उदयपुर घाटी के अनेक गाँवों का विकास भी किया। उनकी रुचि त्योहारों, उत्सवों और सांस्कृतिक आयोजनों में थी, जिनमें से कई आज भी उदयपुर में पारंपरिक रूप से मनाए जाते हैं। उन्होंने ऐसे निर्माण कार्य कराए, जो आज भी राजस्थान की गौरवशाली विरासत का हिस्सा हैं।
महल एवं घाट स्थापत्य

राणा महल घाट पर बना महल पूर्णतः राजस्थानी शैली में निर्मित है। इसके गंगा की ओर तीन बड़े बरामदे (बुर्जियाँ/ मंडप) हैं, जिनकी छतें खूबसूरती से गढ़ी गई हैं। महल की अनेक जालीदार पत्थर की झरोखे (झरोखा) और मेहराबदार खिड़कियां स्थापत्य वास्तुशैली का उदाहरण हैं। घाट तक पहुंचने के लिए पत्थर की विशाल सीढ़ियों का निर्माण किया गया है, जिनमें हर पाँच सीढ़ियों पर एक पटल (तल) बना है। सीढ़ियों के ऊपरी हिस्से में शिवलिंगों के लिए कोष्ठक हैं और निकट ही वरकटुंड गणेश का प्राचीन मंदिर स्थित है।
महल के चारों ओर छोटे बुर्ज़ (कमनों) एवं मीनारें हैं, जिन पर राजपूताना मीनारों की तरह ऊँची शाखाएँ हैं। इन विवरणों में राजपूताना स्थापत्य का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। ऊपर बताई गयी विशेषताओं में घाट के पत्थरों और महल के स्तंभों पर किए गए नक्काशी और जालीदार काम स्थापत्य कला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं।
धार्मिक महत्व
राणा महल घाट धार्मिक दृष्टि से भी समृद्ध है। घाट की सीढ़ियों के ऊपरी भाग में दोनों ओर शिवलिंगों के छोटे-छोटे मंदिर (देवकुलिका) बसे हुए हैं, जहाँ श्रद्धालु गणेश जी एवं शिव जी की पूजा करते हैं। इन कोष्ठकों में स्थापित शिवलिंगों का यहां विशेष महत्व है। घाट की निकटता में स्थित वरकटुंड गणेश का पुरातन मंदिर दर्शनार्थियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, राणा महल घाट पर गंगा स्नान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और पापों से मुक्ति मिलती है। सुबह-शाम यहां श्रद्धालु गंगा में स्नान और आरती के लिए आते हैं। घाट की शांतिपूर्ण वातावरण में ध्यान-धारणा और मंत्रोच्चार से आध्यात्मिक शांति मिलती है।
पर्यटन आकर्षण
गंगा किनारे राणा महल घाट का सुरम्य दृश्य (सुबह का समय): पास में खड़ी नावें और तट पर राजपूताना शैली के महलों की छायाएं दिखती हैं। राणा महल घाट अपनी खूबसूरत बाहरी बनावट और शांत वातावरण के कारण पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहां की पुरातन राजपूताना शैली की वास्तुकला और घाट पर फैली सुबह की पहली किरण फ़ोटोग्राफरों को विशेष रूप से लुभाती है। घाट पर नाव द्वारा गंगा भ्रमण, सूर्योदय तथा सूर्यास्त का नजारा अद्भुत है। स्थानीय संस्कृति व रीति-रिवाज यहां की विशेषता हैं; आसपास के इलाके में संगीतमय गंगा आरती और धार्मिक आयोजन होते रहते हैं।
पर्यटकों के लिए राणा महल घाट अन्य घाटों की तुलना में शांत है और भीड़ कम रहती है। घाट के ऊपर बने ऊँचे राजसी भवनों को निहारते हुए गंगा की लहरों में समय बिताना हर आगंतुक के लिए सुखद अनुभव है।
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सन्दर्भ
- काशी का इतिहास – डॉ० मोतीचंद – पेज – 392 ↩︎