Last Updated on July 13, 2025 by Yogi Deep
गंगा के किनारे बसी काशी नगरी की दिव्यता अत्यंत सुखद है और गंगा जी के घाट और भी दिव्य हैं इन्हीं में से एक घाट है शीतला घाट, जो आपको शांति की एक नयी अनुभूति करता है। यह घाट केवल पत्थरों की सीढ़ियाँ नहीं, बल्कि हज़ारों सालों की धार्मिक आस्था, परंपराओं, और सांस्कृतिक चेतना का साक्षी है। दशाश्वमेध घाट के दक्षिण में स्थित यह घाट वाराणसी के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। आइये इस घाट के बारे में विस्तार से जानते हैं।
| घाट का नाम | अहिल्याबाई घाट |
| क्षेत्र | वाराणसी |
| निर्माण | 18वीं शताब्दी |
| निर्माता | महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा |
| विशेषता | घाट स्थित मंदिर |
| दर्शनीय स्थल | शीतला देवी मंदिर |
शीतला घाट
यह घाट गंगा जी के किनारे अहिल्याबाई घाट एवं प्रयाग घाट के मध्य में स्थित है। इस घाट का निर्माण इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा करवाया गया था। यह घाट तीर्थ यात्रियों एवं दैनिक स्नानार्थियों के मध्य सर्वाधिक प्रसिद्ध है। विशेष दिनों एवं भारतीय पर्वों के समय यहाँ स्नानार्थियों की संख्या सर्वाधिक होती है। यहीं इसी घाट पर ही माँ शीतला देवी का मंदिर स्थित हैं जो आम जन मानस के मध्य काफी प्रसिद्ध है। काशी के आलावा काशी से कुछ ही दुरी पर मिर्जापुर जिले के अदलपुरा में एक और शीतला माता का मंदिर स्थित है, जो काफी प्रसिद्ध है।

शीतला देवी मंदिर
इस घाट का नाम शीतला देवी के प्रसिद्ध मंदिर के कारण पड़ा। यह मंदिर घाट से सटा हुआ है और श्रद्धालुओं के लिए गहरी आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि शीतला माता महामारी और रोगों से रक्षा करती हैं, इसलिए विशेष रूप से नवरात्र में यहाँ दर्शनार्थियों की भारी भीड़ उमड़ती है। मंदिर के समीप दो प्राचीन शिव मंदिर भी हैं, जो घाट की आध्यात्मिक महत्ता को और बढ़ाते हैं। नवरात्री के समय इस मंदिर में माता के दर्शन के लिए दर्शनार्थियों की सर्वाधिक भीड़ लगती है। नवरात्री के नौ दिनों तक मंदिर को खूब सजाया जाता है एव यहाँ नवरात्री धूम-धाम से मनाई जाती है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
19वीं शती ई. के पूर्व शीतला घाट दशाश्वमेध घाट का ही हिस्सा हुआ करता था। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा इस घाट का पक्का निर्माण कराया गया। कुछ वर्षों बाद यहाँ शीतला देवी का मंदिर बना और इस घाट ने अपनी एक अलग पहचान पाई। ब्रिटिश अधिकारी जेम्स प्रिन्सेप ने 1831 में इस घाट का प्रथम उल्लेख किया था।
धार्मिक महत्व और परंपराएँ
गंगा स्नान की दृष्टि से यह घाट दशाश्वमेध घाट के बाद दूसरा सबसे प्रमुख घाट माना जाता है। सूर्य-ग्रहण, चन्द्र-ग्रहण, गंगादशहरा, मकर संक्रांति, डालाछठ, शिवरात्रि, तीज और कजरी जैसे पर्वों पर यहाँ श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ती है। यहाँ स्नान करने का अपना विशेष महात्म्य है।
घाट पर प्रतिदिन मुण्डन संस्कार, विवाहोपरांत गंगा पूजन, पिण्डदान, गोदान, गंगा को पीयरी चढ़ाना, भजन-कीर्तन और धार्मिक प्रवचन जैसे आयोजन होते रहते हैं। यह घाट धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों जीवंत केंद्र है।
घाट स्थित अन्य दर्शनीय स्थल
घाट पर शीतला मंदिर के अतिरिक्त दो शिव मंदिर भी स्थित हैं एवं शीतला माता मंदिर के दक्षिण में तीन देवकुलिकाएँ स्थित हैं, जिनमें गंगा, दत्तात्रेय और विठ्ठल की सुंदर मूर्तियाँ हैं। ये देवप्रतिमाएँ इस स्थान की आध्यात्मिक गरिमा को और भी ऊँचाई प्रदान करती हैं।
घाट की वास्तुकला और संरचना
1958 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस घाट का पुनर्निर्माण करवाया गया, जिससे यह आज एक पक्का, साफ़ और सुदृढ़ घाट बन चुका है। घाट की सीढ़ियों के दोनों ओर षट्कोणीय मढ़ियाँ बनी हुई हैं, जिनके ऊपरी भाग में घाटिये परंपरागत रूप से बैठते हैं। पूर्व में इन मढ़ियों के भीतरी भाग को स्त्रियाँ स्नान के पश्चात वस्त्र बदलने के लिए उपयोग करती थीं।
शीतला घाट, वाराणसी केवल एक तीर्थस्थल नहीं, बल्कि संस्कृति, भक्ति और इतिहास का संगम है। यहां की गंगा आरती, मंदिरों की घंटियाँ, और श्रद्धालुओं की आस्था वाराणसी की उस जीवंत आत्मा को दर्शाते हैं जो सदियों से भारतीय संस्कृति की धड़कन रही है। अगर आप बनारस आएं, तो शीतला घाट पर एक बार जरूर जाएं — यह अनुभव आपके दिल में हमेशा के लिए बस जाएगा।
