Last Updated on December 14, 2024 by Yogi Deep
दुर्गाकुण्ड पर स्थित दुर्गा माता का यह मन्दिर वाराणसी के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। 1760 ईस्वी में बने इस मंदिर का निर्माण बंगाल के नाटोर राज्य की महारानी रानी भवानी (রাণী ভবাণী) ने करवाया था। वर्तमान में नटोर स्थान बांग्लादेश में स्थित है। काशी में स्थित यह मंदिर माता कूष्माण्डा देवी को समर्पित है, यह मंदिर काशी में स्थित नवदुर्गा मंदिरों में से एक है। माता कूष्माण्डा देवी माँ दुर्गा का चतुर्थ स्वरूप है। इस मंदिर से सटा हुआ एक सुंदर सा कुण्ड भी है। जिस कारण इस स्थान को दुर्गाकुंड के नाम से जाना जाता है।
मन्दिर का नाम | दुर्गा मन्दिर, दुर्गाकुण्ड |
स्थान | दुर्गा कुण्ड, भेलूपुर, वाराणसी |
देवी | कूष्माण्डा देवी |
निर्माण शैली | नागर शैली |
निर्माता | बंगाल की रानी भवानी |
निर्मित वर्ष | 1760 ईस्वी |
दुर्गा मन्दिर, दुर्गाकुण्ड का इतिहास
दुर्गाकुण्ड मंदिर का निर्माण नाटोर की रानी भवानी ने करवाया था। रानी भवानी का जन्म 1716 ईस्वी में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में इनका नाम अर्धबंगेश्वरी (অর্ধবঙ্গেশ্বরী) था। सन 1748 में पति की मृत्यु के बाद रानी भवानी ने संपूर्ण राजशाही जमींदारी का भार स्वयं उठाया। राज्य से होने वाली कमाई का आधा भाग राज्य को देने के पश्चात जो भी बचता था उन पैसों को रानी धार्मिक एवं जरूरतमंद लोगों की सहायता में लगती थी।
इसी क्रम में रानी भवानी ने काशी में स्थित दुर्गाकुंड मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। यह मंदिर माता कूष्माण्डा देवी को समर्पित है। पौराणिक मान्यता के अनुसार यह मंदिर आदिकालीन है। इस मंदिर का उल्लेख काशी खण्ड में भी वर्णित है।
इस कुण्ड के संदर्भ में देवी भागवत अध्याय 23 में एक कथा है, काशी नरेश सुबाहू नें अपनी पुत्री शशि कला का विवाह करने के लिए एक स्वयंवर बुलाया। लेकिन राजकुमारी के मन में वनवासी राजकुमार सुदर्शन के प्रति अगाध प्रेम जानकर उन्होंने गुपचुप ढंग से वैदिक रीति से विवाह कार्य संपन्न कर दिया। जब यह समाचार अन्य राजाओं को मिला तो वह आग बबूला हो अपनी सेनाएं लेकर राजकुमार सुदर्शन का मार्ग रोक कर युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए।
राजकुमार सुदर्शन माता दुर्गा का परम भक्त था, अतः उसने माता का ध्यान किया। सुदर्शन द्वारा ध्यान करने पर माता साक्षात सिंह पर सवार होकर सुदर्शन के पक्ष में युद्ध करने लगी, जिससे राजकुमार सुदर्शन को विजय प्राप्त हुई। तब देवी की स्तुति करते हुए काशी नरेश ने देवी से वरदान मांगा की माता की अब आप मेरी काशी नगरी में सदा विराजने की कृपा करिए।
भगवती दुर्गा के नाम से यहां आप शक्ति के रूप में विराजमान हो आपको काशीपुरी की निरंतर रक्षा करनी चाहिए। जिस प्रकार शत्रु के समूह से सुदर्शन की रक्षा की है माता वैसे ही आप काशी की भी रक्षा करते रहिए। काशीपुरी जब तक धरा धाम पर रहे तब तक आप का यहां रहना अति आवश्यक है। मुझे यही वरदान देने की कृपा करें। मान्यता है की देवी भागवत में वर्णित कथा के अनुसार मां जगदंबा दुर्गा मंदिर इसी दुर्गकुंड पर स्थित है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहां मां दुर्गा की मूर्ति स्थापित नहीं है। ऐसा माना जाता है कि यही मां दुर्गा प्रकट हुई थी, अतः जहां भी देवी माता प्रकट होती है वहां उनके प्रतीकात्मक चिन्हों की पूजा की जाती है। यहां इस मंदिर में माता के मुखौटे एवं चरण पादुका की प्राण प्रतिष्ठा की गई है।
यह मंदिर बीसा यंत्र के आधार पर बनाया गया है। इसका उल्लेख तंत्र शास्त्रों में मिलता है। यह मंदिर तांत्रिक दृष्टिकोण से भी अति महत्वपूर्ण है, यह वर्ष भर में दूर-दूर से तांत्रिक अपनी तंत्र सिद्धि के लिए भी आते हैं। बीसा यंत्र के आधार पर बने संरचनाओं में मंत्र सिद्धि बहुत ही आसानी से हो जाती है। ऐसी जगह पर ध्यान इत्यादि करने से धन समृद्धि वैभव की प्राप्ति होती है एवं तनाव कष्ट एवं रोग से मुक्ति मिलती है।
दुर्गाकुण्ड मंदिर का निर्माण
दुर्गाकुण्ड मंदिर का निर्माण 1760 ईस्वी में हुआ था। यह मंदिर उत्तर भारतीय नागर शैली में बनाया गया है। चौकोर आकार में बना यह मंदिर पूर्ण रूप से पत्थरों से बना हुआ है। यह मंदिर गेरू के साथ लाल रंग से रंगा हुआ है, यह गेरुआ लाल रंग शक्ति एवं मां दुर्गा का रंग माना जाता है।
इस मंदिर के दाहिनी तरफ एक आकर्षक कुण्ड भी बना है, इसे दुर्गा कुण्ड के नाम से जाना जाता है। एक समय यह कुंड सीधे गंगा नदी से जुड़ा हुआ था, ऐसा मन जाता था की इस कुण्ड में गंगा नदी का ही पानी आता था। यह कुंड मंदिर की शोभा को और भी बढ़ा देता है। परंतु वर्तमान में इस तालाब को तारों से घेर दिया गया है, जिस कारण इस कुण्ड की भव्यता दिखती ही नहीं है।
मंदिर प्रांगण में माता दुर्गा के अलावा माता महालक्ष्मी, माता सरस्वती एवं माता महाकाली की मूर्तियों के साथ-साथ बाबा भैरवनाथ की मूर्ति भी स्थापित है। मंदिर प्रांगण में एक हवन कुण्ड भी स्थित है जहां के हवन यज्ञ इत्यादि कार्य संपन्न होते हैं।
स्वक्षता के कारण तालाब का घेराव
विगत वर्षों में तालाब में लोगों द्वारा माला फूल एवं अन्य प्रकार की पूजन सामग्री फेंकी जाती थी जिस कारण मन्दिर से सटा यह कुण्ड काफी गन्दा होने लगा जिस कारण इसे चारों तरफ से ऊँचे-ऊँचे तारों से घेर दिया गया।
दुर्ग विनायक
दुर्ग विनायक का मंदिर 27/1 दुर्गाकुण्ड के पीछे स्थित है। यह मंदिर सुबह पांच से दोपहर 12 बजे तक और शाम को चार से रात 10 बजे तक खुला रहता है। मंदिर में मंगला आरती सुबह पांच बजे और सन्ध्या आरती शाम सात बजे होती है।
दर्शन के विशेष दिन
वैसे तो वर्ष भर मंदिर में श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है। परंतु कुछ विशेष दिन होते हैं जब मंदिर में प्रचंड भीड़ होती है। यहां मंदिर में नवरात्रि में सबसे अधिक भीड़ होती है। नवरात्रि के अलावा दीपावली के समय एवं विशेष त्योहारों पर यहां अधिक भीड़ रहती है।
कैसे पहुंचे
इस मंदिर पर आना बहुत ही आसान है। यहां आप रेल मार्ग वायु मार्ग एवं नेशनल हाईवे तीनों रास्तों से आ सकते हैं। वायु मार्ग से आने के लिए यहां आपको बाबतपुर हवाई अड्डे पर उतरना होगा। वहां से सीधे आपको यहां आने के लिए टैक्सी इत्यादि मिल जाती हैं। या वायु मार्गचेन्नई बेंगलुरु मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग से आने के लिए आप सीधे वाराणसी स्टेशन पर उतारने के बाद दुर्गा कुंड के लिए आपको टैक्सी एवं साधन आसानी से मिल जाते हैं। वाराणसी से तीन नेशनल हाईवे जुड़े हुए हैं जो कोलकाता दिल्ली एवं गोरखपुर से होते हुए वाराणसी से जुड़े हुए हैं।
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