Last Updated on June 19, 2025 by Yogi Deep
अहिल्याबाई होलकर (31 मई 1725–13 अगस्त 1795) मराठा साम्राज्य के होलकर वंश की राजमाता और इंदौर की रानी थीं। मराठा इतिहास में उनका विशेष स्थान है। उन्हें न्यायप्रिय शासन, सामाजिक कल्याण कार्यों और धर्मार्थ प्रयासों के लिए जाना जाता है। शासन-काल के दौरान उन्होंने कई मंदिरों, घाटों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया, जिसके लिए उन्हें ‘पुण्यश्लोक’ की उपाधि से सम्मानित किया गया है। अहिल्याबाई के शासन को शांतिपूर्ण और समृद्धि से परिपूर्ण एक स्वर्णिम युग माना जाता है।1
नाम | अहिल्याबाई होळकर (अहिल्याबाई खण्डेराव होलकर) |
उपाधि | मालवा राज्य की महारानी |
गोत्र | परिहार |
जन्म | 31 मई 1725 |
स्थान | ग्राम चौंढी, जामखेड , अहमदनगर, महाराष्ट्र, भारत |
निधन | 13 अगस्त 1795 |
धर्म | हिन्दू (गडरिया) |
अहिल्याबाई होल्कर, प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
अहिल्याबाई का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी/चौंढी नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता मानकोजी राव शिंदे उस गाँव के सामंत कुलीन थे और उन्होंने उस समय अहिल्याबाई को घर पर पढ़ाया था जब महिलाएं विद्यालय नहीं जाती थीं। मल्हार राव होलकर तब मराठा पेशवा की सेना के एक वरिष्ठ सेनानायक थे, वे अहिल्याबाई के पिता के व्यवहार से अत्यंत प्रभावित थे। अतः उन्होंने अहिल्याबाई का विवाह अपने पुत्र खंडेराव से 1733 में करवा दिया। विवाह उपरांत अहिल्याबाई को 1745 में पुत्र मलेराव और 1748 में पुत्री मुक्ताबाई की प्राप्ति हुई।2
खंडेराव की 1754 में कुम्भेर की लड़ाई में मृत्यु हो गई। उस समय की प्रथा के अनुसार अहिल्याबाई को सती (आत्मदाह) होने का दबाव था, लेकिन मल्हार राव ने उन्हें ऐसा करने से रोका और रियासत के प्रबंधन तथा युद्ध-कौशल की शिक्षा दी। अहिल्याबाई ने तलवारबाजी और धनुरविद्या में महारत हासिल की और मल्हार राव के अनुपस्थिति में राज्य-प्रशासन में हाथ बंटाने लगीं। इस तरह वे प्रशासन एवं युद्ध दोनों में पारंगत हो गईं।

अहिल्याबाई होल्कर और काशी
‘मोक्ष की नगरी’ काशी से अहिल्याबाई का गहरा आत्मिक लगाव था। उन्होंने काशी में अनेक धार्मिक एवं सामाजिक कार्य किए, जिनमें मंदिरों का निर्माण, घाटों की मरम्मत और तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाएँ प्रमुख हैं। इस पावन नगरी में उन्होंने मंदिरों, घाटों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया, जिस कारण आज भी उनकी भक्ति और समर्पण उनके द्वारा निर्मित मंदिरों एवं घाटों के रूप में देखने को मिलती है।
काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण
- मुगल बादशाह औरंगजेब ने 1669 – 1678 ई० में मूल काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया था।
- 1780ई० में अहिल्याबाई ने मंदिर के वर्तमान संरचना का एवं मंदिर परिसर का विस्तार करवाया।
- हालाँकि उनके जीवनकाल में यह कार्य पूरा नहीं हो सका, लेकिन उनकी प्रेरणा से ही आगे चलकर मंदिर का वर्तमान स्वरूप बना।
काशी स्थित कई अन्य मंदिर
- अहिल्याबाई नें काशी में कई अन्य छोटे-बड़े मंदिरों का निर्माण करवाया है।
- गंगा माता मंदिर एवं गंगा घाट पर स्थित ३ अन्य मन्दिर का निर्मण इन्हीं के संरक्षण में हुआ।
- इसके अतरिक्त श्री तारकेश्वर मंदिर का निर्माण में इनके ही संरक्षण में हुआ।
घाटों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार
- अहिल्याबाई ने गंगा घाटों की श्रृंखला को सुंदर और व्यवस्थित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- मानमंदिर घाट, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट इत्यादि का निर्माण एवं संरक्षण उन्हीं के शासनकाल में करवाया गया, जो आज भी काशी की शोभा बढ़ाता है।
- अन्य घाटों की मरम्मत और सफाई की व्यवस्था भी उन्होंने करवाई, ताकि तीर्थयात्रियों को सुविधा मिल सके।
धर्मशालाएँ और अन्नक्षेत्र
- काशी आने वाले यात्रियों के लिए उन्होंने रामेश्वरम, कपिलधारा एवं उत्तर-काशी इत्यादि जगहों पर धर्मशालाएँ (सराय) बनवाईं, जहाँ निःशुल्क ठहरने की व्यवस्था थी।
- अन्नक्षेत्र (मुफ्त भोजनालय) चलवाए, जहाँ गरीबों और साधु-संतों को भोजन मिलता था।
- इसके अतिरिक्त उन्होंने बाग़-बगीचे, उद्यान एवं ब्रह्म पूरी जैसे क्षेत्र वहां के लोगों के लिए बनवाएं क्योंकि उनका मानना था कि “भगवान की सेवा, प्रजा की सेवा में ही निहित है।”
शासन की शुरुआत और प्रशासनिक कार्य
सन् 1766 में मल्हार राव होलकर के निधन के बाद उनके पौत्र मलेराव ने सिंहासन संभाला, लेकिन मलेराव की अकाल मृत्यु (1767) के कारण सत्ता-भ्रष्टि हो गई। पुरुष वारिस की अनुपस्थिति में अहिल्याबाई ने पेशवा की सहमति से दिसंबर 1767 में स्वयं को इंदौर रियासत की अधिपति घोषित किया। पेशवा माधवराव ने रानी अहिल्याबाई के अधिकारीत्व को स्वीकार किया और उन्हें इंदौर के शासन की गारंटी दी। अहिल्याबाई ने मल्हार राव के दत्तक पुत्र तुकोजी राव होलकर को सेना का सेनापति नियुक्त किया और अगले 28 वर्षों तक उनकी सैन्य कमान सुचारू रूप से चली।
- शाशन (1767): मल्हार राव की मृत्यु (1766) एवं मलेराव की अकाल मृत्यु के पश्चात अहिल्याबाई ने पेशवा की अनुमति से रियासत संभाली।
- सैन्य एवं प्रशासनिक सुधार: अहिल्याबाई ने सेना की कमान दत्तक पुत्र तुकोजी राव को सौंपी, जिससे सैन्य निरंतरता बनी रही। उन्होंने राजस्व और निजी व्यय को स्पष्ट रूप से अलग रखा; राज्य का राजस्व कोष शाही खानदान के निजी खर्च से पृथक कर वित्तीय पारदर्शिता स्थापित की।
- न्यायपालिका और सामाजिक प्रबंधन: अहिल्याबाई ने प्रतिदिन सार्वजनिक दरबार आयोजित किया जहाँ आम जनता सीधे अपनी शिकायतें रख सकती थी।
- पर्दा प्रथा का त्याग: उस समय के एक और नियम को तोड़ते हुए, अहिल्याबाई ने पर्दा प्रथा (महिलाओं का एकांतवास) को त्याग कर सभी वर्गों के लोगों के साथ सहज संवाद किया। उन्होंने कानून-व्यवस्था सुचारू रहने और न्याय त्वरित प्रदान होने को प्राथमिकता दी।
इन सुधारों से इंदौर रियासत में प्रशासनिक कार्यकुशलता बढ़ी और आम जनता को न्याय प्राप्ति में आसानी हुई। उन्होंने महेश्वर में बुनकर समुदाय के शत-प्रतिशत बुनकरों को बसाकर स्थानीय वस्त्र उद्योग को मजबूत किया, जिसके फलस्वरूप ‘महेश्वरी साड़ियाँ’ प्रसिद्ध हुईं। इस प्रकार अहिल्याबाई ने न केवल किले-कस्बों का निर्माण कराया, बल्कि साम्राज्य की आर्थिक-व्यवस्था को भी सुदृढ़ किया।
सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान
अहिल्याबाई ने शासन के साथ-साथ सामाजिक कल्याण और धर्मार्थ कार्यों पर विशेष ध्यान दिया। उन्हें सामाजिक समावेशी शासन के लिए याद किया जाता है। अपने शासन में उन्होंने निर्धनों, ब्राह्मणों, विधवाओं और यात्रियों की सहायता के लिए अनेक धर्मशालाएँ और भोजनालय स्थापित करवाए। उनके समय में शिक्षा और साहित्य को भी प्रोत्साहन मिला। अहिल्याबाई स्वयं साक्षर थीं, इसलिए उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा दिया और विद्वानों का संरक्षण किया। वे महिलाओं के अधिकारों की हिमायत करती थीं – उदाहरण के लिए, उन्होंने स्वयं पर्दा नहीं रखा और जनता की समस्याएँ सुनने हेतु रोज़ दरबार लगाया, जिससे महिलाएँ भी सहजता से उन्हें मिल सकीं।
अहिल्याबाई को मानवतावादी और धर्मनिष्ठ दृष्टिकोण के लिए प्रतिष्ठित माना जाता है। उन्होंने जाति-पाति के बंधनों को चुनौती देते हुए अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह एक साधारण योद्धा से किया, जिसने एक युद्ध में वीरता दिखाई थी। उस समय यह विवाह एक असामान्य कदम था, जिससे सामाजिक समानता का संदेश मिला। कुल मिलाकर अहिल्याबाई के सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रयासों ने उनके शासन में मानवतावादी आदर्शों को बल दिया और जनता के जीवन स्तर में सुधार किया।
स्थापत्य और निर्माण कार्य
अहिल्याबाई होलकर का शासन भारतीय स्थापत्य के लिए स्वर्णिम काल था। उन्होंने अपने पूरे शासनकाल (1767–1795) में अनेक प्रमुख मंदिरों, घाटों, किलों, धर्मशालाओं और धामों का निर्माण या जीर्णोद्धार करवाया। उनके वास्तुकला-प्रेम एवं धर्मप्रेम को दर्शाते कुछ उल्लेखनीय निर्माण कार्य निम्नलिखित हैं:3
- काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी (1780): औरंगज़ेब द्वारा ध्वस्त इस प्राचीन शिवालय का अहिल्याबाई ने मौलिक रूप में पुनर्निर्माण कराया।
- सोमनाथ मंदिर, गुजरात (1783): सोमनाथ जीर्णोद्धार में मराठा सेनापति शामिल हुए, जहां अहिल्याबाई का महत्वपूर्ण योगदान था।
- विश्नुपद मंदिर, गया (1787): विष्णु देवता की विशाल पदचिह्न पर बना यह प्राचीन मंदिर अहिल्याबाई के आदेश पर बहुमंजिला बनाया गया।
- मुख्य घाट और धर्मस्थल: वाराणसी के दशाश्वमेध घाट एवं मणिकर्णिका घाट तथा अयोध्या का शरयू घाट आदि प्रमुख घाट उनके शासन में बने। इसके अतिरिक्त काशी में अहिल्याबाई घाट रानी अहिल्याबाई को समर्पित है।
- महेश्वर किला एवं महल: महेश्वर को अपनी राजधानी बनाकर उन्होंने यहाँ विशाल किला और राजमहल बनवाए, जो नर्मदा नदी के किनारे आज भी खड़े हैं। महल के प्रांगणों में अनेक मंदिरों और झरोखों की नक्काशी देखी जा सकती है।
इन परियोजनाओं से दूर-दराज के तीर्थस्थलों और नगरों की भव्यता बढ़ी। अहिल्याबाई ने न केवल स्थानीय क्षेत्र में, बल्कि पूरे भारत में हिंदू धर्मस्थलों के संरक्षण तथा नवीकरण के लिए कार्य किये।
रानी अहिल्याबाई का शासन काल
अहिल्याबाई होलकर के शासन का मालवा क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव पड़ा। उनके नेतृत्व में इंदौर एवं महेश्वर आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र बनकर उभरे। उन्होंने महेश्वर की प्रसिद्ध वस्त्र कला (महेश्वरी साड़ियाँ) को जन्म दिया और वहां के बुनकरों के पुनर्वास से स्थानीय अर्थव्यवस्था संपन्न हुई। महेश्वर उनके शासनकाल की राजधानी थी, जहाँ उन्होंने शिल्पकारों और कलाकारों को संरक्षण देकर नगर को एक सांस्कृतिक केंद्र बनाया। अहिल्याबाई ने काशी विश्वनाथ एवं औरंगाबाद के गिरिष्णेश्वर मंदिर के जीर्णोद्धार में योगदान देकर पूरे देश के धार्मिक इतिहास में सुधार किया।
आधुनिक काल में अहिल्याबाई के सम्मान में कई स्मारक और संस्थाएँ स्थापित की गई हैं। इंदौर का अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा “देवी अहिल्याबाई होलकर एयरपोर्ट” के नाम से प्रसिद्ध है तथा इंदौर विश्वविद्यालय का नाम “देवी अहिल्या विश्वविद्यालय” रखा गया है। उनके योगदान को उजागर करने के लिए भारत सरकार ने 1996 में अहिल्याबाई की स्मारक डाक टिकट भी जारी की थी।
ऐतिहासिक दृष्टि से उनकी शासन-काल को एक शांतिपूर्ण और विकासशील युग के रूप में देखा गया है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अहिल्याबाई के योगदान को अधिक मान्यता मिलनी चाहिए, क्योंकि पारंपरिक इतिहासलेखन में उनके कार्यों का पर्याप्त प्रकाशन नहीं है। फिर भी, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में उनके लिए उत्सव और कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जो उनके आदर्शों को सहेजने का प्रयास है।
अन्ततः अहिल्याबाई होलकर एक न्यायप्रिय, कुशल और धर्मनिष्ठ शासक के रूप में इतिहास में प्रतिष्ठित हैं। उनका शासनकाल मराठा साम्राज्य के लिए समृद्धि और सांस्कृतिक विकास का काल था, जिसने बाद की पीढ़ियों में अच्छी शासन-पद्धति और सामाजिक समावेशिता का उदाहरण स्थापित किया।